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Death anniversary of Lal Bahadur Shastri भारतीय राजनेता, महान् स्वतंत्रता सेनानी और भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि पर जानें इनके संघर्ष की पूरी कहानी

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Posted On:Thursday, January 11, 2024

एक प्रसिद्ध भारतीय राजनेता, महान् स्वतंत्रता सेनानी और जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे। वे एक ऐसी हस्ती थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में देश को न सिर्फ सैन्य गौरव का तोहफा दिया बल्कि हरित क्रांति और औद्योगीकरण की राह भी दिखाई। शास्त्री जी किसानों को जहां देश का अन्नदाता मानते थे, वहीं देश के सीमा प्रहरियों के प्रति भी उनके मन में अगाध प्रेम था जिसके चलते उन्होंने 'जय जवान, जय किसान' का नारा दिया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री एक स्वच्छ छवि वाले नेता थे। उनका व्यक्तित्व सादगी से परिपूर्ण था। वह एक मृदुभाषी व्यक्ति भी थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद शास्त्रीजी लगभग डेढ़ वर्ष तक देश के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने पूरी दुनिया के सामने अपनी काबिलियत साबित की. यह इस देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था कि प्रधानमंत्री रहते हुए उनकी रहस्यमय तरीके से मृत्यु हो गई। 11 जनवरी को उज्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में उनका निधन हो गया। कहा जाता है कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई, वहीं ये भी कहा जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था. हालाँकि, उनकी मृत्यु कैसे हुई यह अभी भी एक रहस्य है। आज उनकी पुण्यतिथि के मौके पर आइए जानते हैं कि उनकी मृत्यु के दिन क्या घटनाएं घटी थीं?

जीवन परिचय

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुग़लसराय, उत्तर प्रदेश में 'मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव' के यहाँ हुआ था। इनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। अत: सब उन्हें 'मुंशी जी' ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में लिपिक (क्लर्क) की नौकरी कर ली थी। लालबहादुर की माँ का नाम 'रामदुलारी' था। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार से नन्हें कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हें अठारह महीने का हुआ तब दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। उसकी माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं।

कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हें की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही प्रबुद्ध बालक ने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया। इसके पश्चात् 'शास्त्री' शब्द 'लालबहादुर' के नाम का पर्याय ही बन गया।

शिक्षा

भारत में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के एक कार्यकर्ता लाल बहादुर थोड़े समय (1921) के लिये जेल गए। रिहा होने पर उन्होंने एक राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ (वर्तमान महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ) में अध्ययन किया और स्नातकोत्तर शास्त्री (शास्त्रों का विद्वान) की उपाधि पाई। स्नातकोत्तर के बाद वह गांधी के अनुयायी के रूप में फिर राजनीति में लौटे, कई बार जेल गए और संयुक्त प्रांत, जो अब उत्तर प्रदेश है, की कांग्रेस पार्टी में प्रभावशाली पद ग्रहण किए। 1937 और 1946 में शास्त्री प्रांत की विधायिका में निर्वाचित हुए।

विवाह

1928 में उनका विवाह गणेशप्रसाद की पुत्री 'ललिता' से हुआ। ललिता जी से उनके छ: सन्तानें हुईं, चार पुत्र- हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक; और दो पुत्रियाँ- कुसुम व सुमन। उनके चार पुत्रों में से दो- अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री अभी भी हैं, शेष दो दिवंगत हो चुके हैं।

नेहरू जी से मुलाकात

1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने श्री टंडन जी के साथ 'भारत सेवक संघ' के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। यहीं उनकी नज़दीकी नेहरू जी से भी बढी। इसके बाद से उनका क़द निरंतर बढता गया जिसकी परिणति नेहरू मंत्रिमंडल में गृहमंत्री के तौर पर उनका शामिल होना था। इस पद पर वे 1951 तक बने रहे।

नारा 'मरो नहीं मारो'

"मरो नहीं मारो" का नारा "करो या मरो" का ही एक रूप था। गाँधीवादी सोच के चलते महात्मा गाँधी ने नारा दिया था- 'करो या मरो'। यह नारा उसी रात दिया गया था, जिस रात भारत छोड़ो आन्दोलन का आगाज़ हुआ। यह इसी नारे का असर था कि सम्पूर्ण देश में क्रान्ति की प्रचंड आग फ़ैल गई। ब्रिटिश शासन के खिलाफ इसे अगर एक हिंसक नारा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यह नारा लाल बहादुर शास्त्री द्वारा 1942 में दिया गया था, जो कि बहुत ही चतुराई पूर्ण रूप से 'करो या मरो' का ही एक अन्य रूप था तथा समझने में आत्यधिक सरल था। सैंकड़ों वर्षों से दिल में रोष दबाए हुए बैठी जनता में यह नारा आग की तरह फ़ैल गया था। एक तरफ गाँधीवादी विचारधारा अहिंसा के रास्ते पर चलकर शांतिपूर्वक प्रदर्शन से ब्रिटिश सरकार से आज़ादी लिए जाने का रास्ता था, परन्तु अंग्रेज़ों ने शायद इसे आवाम का डर समझ लिया था। इसी कारण साफ़ अर्थों में अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों तथा हिंसा के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना आवश्यक था। तत्पश्चात् स्थिति को भांपते हुए शास्त्री जी ने चतुराईपूर्वक 'मरो नहीं मारो' का नारा दिया, जो एक क्रान्ति के जैसा साबित हुआ।

मंत्री पद

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री के समय में उन्होंनें प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद में नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया। 1951 में, जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। 1952 में वह संसद के लिये निर्वाचित हुए और केंद्रीय रेलवे व परिवहन मंत्री बने।

भारत के दूसरे प्रधानमंत्री

1961 में गृह मंत्री के प्रभावशाली पद पर नियुक्ति के बाद उन्हें एक कुशल मध्यस्थ के रूप में प्रतिष्ठा मिली। 3 साल बाद जवाहरलाल नेहरू के बीमार पड़ने पर उन्हें बिना किसी विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया और नेहरू की मृत्यु के बाद जून 1964 में वह भारत के प्रधानमंत्री बने। भारत की आर्थिक समस्याओं से प्रभावी ढंग से न निपट पाने के कारण शास्त्री जी की आलोचना हुई, लेकिन जम्मू-कश्मीर के विवादित प्रांत पर पड़ोसी पाकिस्तान के साथ वैमनस्य भड़कने पर (1965) उनके द्वारा दिखाई गई दृढ़ता के लिये उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली। ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्ध करने की ताशकंद घोषणा के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उनकी मृत्यु हो गई।

'जय जवान, जय किसान' का नारा

धोती कुर्ते में सिर पर टोपी लगाए गांव-गांव किसानों के बीच घूमकर हाथ को हवा में लहराता, जय जवान, जय किसान का उद्घोष करता। ये उसके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू है। भले ही इस महान् व्यक्ति का कद छोटा हो लेकिन भारतीय इतिहास में उसका कद बहुत ऊंचा है। जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद शास्त्री जी ने 9 जून, 1964 को प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया। उनका कार्यकाल राजनीतिक सरगर्मियों से भरा और तेज गतिविधियों का काल था। पाकिस्तान और चीन भारतीय सीमाओं पर नज़रें गड़ाए खड़े थे तो वहीं देश के सामने कई आर्थिक समस्याएं भी थीं। लेकिन शास्त्री जी ने हर समस्या को बेहद सरल तरीक़े से हल किया। किसानों को अन्नदाता मानने वाले और देश की सीमा प्रहरियों के प्रति उनके अपार प्रेम ने हर समस्या का हल निकाल दिया "जय जवान, जय किसान" के उद्घोष के साथ उन्होंने देश को आगे बढ़ाया।

निधन

ताशकंद समझौते के बाद दिल का दौरा पड़ने से 11 जनवरी, 1966 को ताशकंद में शास्त्री जी का निधन हो गया। हालांकि उनकी मृत्यु को लेकर आज तक कोई आधिकारिक रिपोर्ट सामने नहीं लाई गई है। उनके परिजन समय समय पर उनकी मौत का सवाल उठाते रहे हैं। यह देश के लिए एक शर्म का विषय है कि उसके इतने काबिल नेता की मौत का कारण आज तक साफ नहीं हो पाया है।

सम्मान और पुरस्कार

शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

शास्त्रीजी के कार्यकाल में भारत ने 1965 का युद्ध जीता।

देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री ने देश की कमान संभाली। वह लगभग 18 महीने तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री थे तब भारत ने पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध जीता था। इस दौरान अयूब खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे. 1964 में पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद पाकिस्तान की मुलाकात शास्त्री जी से हुई। इस मुलाकात के बाद शास्त्रीजी और अयूब खान के बीच एक बैठक हुई, जिसमें शास्त्री की सादगी देखकर अयूब खान को लगा कि वह कश्मीर को भारत से जबरदस्ती छीन सकते हैं।

यहीं पर अयूब खान ने गलती की और अगस्त 1965 में कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए घुसपैठियों को भेज दिया। शास्त्री की सादगी से अयूब खान धोखा खा गए और इस युद्ध की कीमत पाकिस्तान को चुकानी पड़ी। जब पाकिस्तानी सेना ने चंबा सेक्टर पर हमला किया, तो प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भारतीय सेना को पंजाब से मोर्चा खोलने का आदेश दिया। परिणाम यह हुआ कि भारतीय सेना लाहौर की ओर कूच कर गयी। सितंबर 1965 में भारत ने लोहार पर लगभग कब्ज़ा कर लिया। पाकिस्तान अपना शहर खोने की कगार पर था, लेकिन 23 सितंबर 1965 को संयुक्त राष्ट्र ने हस्तक्षेप किया। इसके बाद भारत ने युद्धविराम की घोषणा कर दी.

ताशकंद का रहस्य क्या है?

ताशकंद की कहानी भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध ख़त्म होने के बाद शुरू होती है। 1965 के इस युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत के लिए ताशकंद को चुना गया. सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधान मंत्री एलेक्सी कोज़ीगिन ने समझौते की पेशकश की। ताशकंद में समझौते के लिए 10 जनवरी 1966 की तारीख तय की गई। इस समझौते के तहत दोनों देशों को 25 फरवरी 1966 तक अपनी-अपनी सेनाएं सीमा से हटानी थीं। समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी की रात को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई।

मृत्यु से जुड़े रहस्य

कहा जाता है कि ताशकंद में हुए समझौते के बाद शास्त्रीजी दबाव में थे. जानकारों का कहना है कि हाजी पीर और थिथवाल को पाकिस्तान को सौंपने को लेकर भारत में शास्त्री की आलोचना हो रही थी. उस समय वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर शास्त्री के मीडिया सलाहकार थे। उन्होंने ही परिवार को शास्त्री की मृत्यु की जानकारी दी थी. नैय्यर ने एक इंटरव्यू में कहा कि हाजी पीर और थिथवाल के पाकिस्तान लौटने से शास्त्री की पत्नी भी काफी नाराज थीं. उन्होंने शास्त्री से फोन पर बात करने से भी इनकार कर दिया, जिससे शास्त्री को बहुत दुख हुआ। अगले दिन शास्त्री जी की मृत्यु ने देश को स्तब्ध कर दिया। दावा किया जाता है कि शास्त्री जी की मृत्यु जहर देने से हुई, जबकि कुछ का कहना है कि उनकी मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से हुई।


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