भारत का ‘खाद्य कटोरा’ कहे जाने वाला उत्तर प्रदेश अब खेती के एक नए और टिकाऊ मॉडल की ओर बढ़ रहा है। लंबे समय तक रसायनों, उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल ने जहां मिट्टी की उर्वरता को कमजोर किया, वहीं लोगों के स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक असर डाला। इन चुनौतियों को देखते हुए प्रदेश के किसान अब तेजी से जैविक खेती को अपना रहे हैं। यह न केवल पर्यावरण के लिए सुरक्षित है, बल्कि किसानों की आय बढ़ाने का एक मजबूत और भरोसेमंद जरिया भी बनता जा रहा है।
मिट्टी की सेहत और सरकारी प्रयास
उत्तर प्रदेश सरकार ने जैविक और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए कई अहम योजनाएं शुरू की हैं। विशेष रूप से गंगा किनारे बसे जिलों में ‘नमामि गंगे’ योजना के तहत प्राकृतिक खेती को प्राथमिकता दी जा रही है। सरकार का लक्ष्य गंगा के दोनों किनारों पर 5-5 किलोमीटर के दायरे में रासायनिक खेती को पूरी तरह खत्म करना है। इससे एक ओर गंगा नदी का जल प्रदूषण कम होगा, तो दूसरी ओर मिट्टी की सेहत भी लंबे समय तक बनी रहेगी।
सरकार किसानों को प्रशिक्षण, जैविक खाद बनाने की तकनीक, बीज संरक्षण और प्रमाणीकरण की सुविधा भी दे रही है। कृषि विभाग और कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) गांव-गांव जाकर किसानों को जैविक खेती के फायदे समझा रहे हैं।
महत्वपूर्ण तथ्य और आंकड़े
उत्तर प्रदेश में जैविक खेती अब केवल प्रयोग नहीं, बल्कि एक संगठित आंदोलन का रूप ले चुकी है।
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प्रमाणीकरण: राज्य के लाखों हेक्टेयर कृषि क्षेत्र को जैविक खेती के तहत पंजीकृत किया जा चुका है, जिससे किसानों को उनके उत्पाद का बेहतर दाम मिल रहा है।
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बाजार की मांग: काला नमक चावल, जैविक गुड़, दालें, तिलहन और सब्जियों जैसे जैविक उत्पादों की मांग वैश्विक बाजार में 15–20 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है।
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लागत में कमी: रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर होने वाला खर्च लगभग शून्य हो जाता है, जिससे छोटे और सीमांत किसानों की बचत बढ़ती है और मुनाफा सीधा हाथ में आता है।
किसानों के लिए वरदान बनती जैविक खेती
जैविक खेती में गाय के गोबर और गौमूत्र से तैयार ‘जीवामृत’ और ‘घनजीवामृत’ जैसी प्राकृतिक खाद का उपयोग किया जाता है। इससे मिट्टी में केंचुए और मित्र कीटों की संख्या बढ़ती है, जो जमीन को उपजाऊ बनाते हैं। इसका असर यह होता है कि फसल की गुणवत्ता बेहतर होती है और जमीन लंबे समय तक खेती के योग्य बनी रहती है।
उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र आज जैविक खेती के नए केंद्र के रूप में उभर रहा है। पानी की कमी वाले इस इलाके में किसान कम लागत में जैविक दलहन, तिलहन और मोटे अनाज उगाकर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। वहीं सिद्धार्थनगर का ‘काला नमक चावल’ जैविक खेती की सबसे बड़ी सफलता की कहानी बन चुका है, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और सराहना मिल रही है।
चुनौतियां और भविष्य की राह
हालांकि जैविक खेती पूरी तरह आसान नहीं है। शुरुआती 2 से 3 वर्षों में पैदावार थोड़ी कम हो सकती है, क्योंकि मिट्टी को रसायनों से मुक्त होने और प्राकृतिक संतुलन बनाने में समय लगता है। लेकिन एक बार मिट्टी सुधर जाने के बाद उत्पादन स्थिर हो जाता है और गुणवत्ता के कारण किसानों को बेहतर कीमत मिलने लगती है।
इन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सरकार अब ब्लॉक स्तर पर ‘जैविक हाट’, स्थानीय बाजार और टेस्टिंग लैब स्थापित कर रही है। इससे किसानों को प्रमाणीकरण, गुणवत्ता जांच और सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचने में मदद मिलेगी।