भारतीय राजनीति का इतिहास यह साबित करता है कि किसी भी नेता या पार्टी को सफल होने के लिए परंपरागत राजनीतिक दलों, मजबूत संगठन, सत्ता या किसी बड़े जनांदोलन के कंधों का सहारा लेना पड़ा है। बिहार में प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज पार्टी की विफलता का मूल कारण यही है कि चुनावी रणनीति तय करने वाले किशोर ने इस जमीनी वास्तविकता को पूरी तरह से अनदेखा किया। बिना किसी मजबूत नींव के, सिर्फ परिवर्तन के वादे और पदयात्राएं वोटों में तब्दील नहीं होतीं।
संगठन और सत्ता की अनिवार्यता
आजादी के बाद से जिन नेताओं ने राष्ट्रीय या क्षेत्रीय राजनीति में मुकाम बनाया, उनके सफर में संगठन और सत्ता ने निर्णायक भूमिका निभाई:
पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी: विरासत और निर्णायक फैसले
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पंडित जवाहरलाल नेहरू: उनकी विराट छवि के निर्माण में आजादी की लड़ाई की अगुवाई करने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके गाँव-गाँव तक फैले मजबूत संगठन की बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा, सत्ता में रहते हुए उन्होंने देश के विकास और निर्माण के जो कार्य किए, उनसे जनता की उम्मीदें कायम रहीं।
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इंदिरा गांधी: 1967 के झटके के बाद, वह केवल नेहरू की विरासत पर टिकी नहीं रहीं। उन्होंने सत्ता में रहते हुए बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स खत्म करने जैसे साहसिक और गरीब समर्थक फैसले लिए। इन फैसलों को अमल में लाने के लिए सत्ता का सहयोग अनिवार्य था, जिसने 1971 में उनकी गरीब समर्थक छवि को वोट में बदला।
क्षत्रप: जनांदोलन और पुरानी पार्टी की जमीन
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जनता पार्टी (1977): यह पार्टी जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, और समाजवादी घटकों के विलय से बनी थी। इसकी सफलता की पूंजी इन पुराने दलों के वोट बैंक के साथ-साथ आपातकाल (Emergency) की ज्यादतियों से उपजा आक्रोश और जय प्रकाश नारायण (JP) के संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नैतिक आभामंडल था।
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लालू यादव और मुलायम सिंह यादव: इन दोनों क्षेत्रीय क्षत्रपों ने सत्ता में रहते हुए अपना विशिष्ट वोट बैंक (मुस्लिम-यादव गठबंधन) तैयार किया। लालू यादव ने समस्तीपुर में आडवाणी की गिरफ्तारी से मुस्लिम वोटरों को साधा, जबकि मुलायम सिंह ने बाबरी मस्जिद की हिफाजत की ललकार के बीच मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में किया। उनकी यह जमीन जनता दल जैसे पुराने राजनीतिक दलों के साथ चले सफर के दौरान तैयार हुई।
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ममता बनर्जी: पश्चिम बंगाल में उनकी ताकत अचानक नहीं बनी। युवा कांग्रेस और कांग्रेस से लंबे जुड़ाव ने उन्हें राज्य के हर कोने में मशहूर किया और अपनी पार्टी को विस्तार देने में पुराने पार्टी के साथियों ने बड़ी भूमिका निभाई।
लहरों पर सवार सफलताएँ
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अरविंद केजरीवाल (AAP): दिल्ली में आम आदमी पार्टी की पहली सफलता का श्रेय सिर्फ केजरीवाल को नहीं दिया जा सकता। वह भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन की लहरों पर सवार होकर लोगों तक पहुँचे और उस आंदोलन से उपजे सत्ता विरोधी माहौल को दिल्ली में भुनाया। बाद के चुनावों में सत्ता भी सहयोगी बनी।
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एनटी रामाराव (तेलुगु देशम): उनकी सफलता उनकी विराट फिल्मी छवि की देन थी, जिसे लोगों के बीच पहुंचने के लिए किसी परिचय की जरूरत नहीं थी।
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नरेंद्र मोदी: 2014 से भाजपा के लिए जीत की गारंटी बने मोदी की छवि भी हवा में निर्मित नहीं हुई है। वह भाजपा के विस्तृत मजबूत संगठन और संघ के एक सदी के सफर में तैयार मजबूत वैचारिक जमीन पर टिके हुए हैं।
प्रशांत किशोर की चूक
प्रशांत किशोर की विफलता यह दिखाती है कि केवल 'जन सुराज' जैसे परिवर्तन के वादे और पदयात्राएं वोटों में नहीं बदल सकतीं। बदलाव की आकांक्षा रखने वालों को भी नया झंडा लेकर चलने से पहले किसी पुराने संगठन या जनांदोलन का ठोस सहारा लेना होता है। राजनीतिक जड़ें, संगठन और विचारधारा के बिना, चुनावी सफलता केवल एक हवाई सपना ही रहती है।